खंडर सा हो गया है। आज कल मेरा मन
बिना वज़ह खामोश होकर भी बेचैन रहता है मेरा मन नदी की तरहा ऊभनता है कभी-कभी
कभी सूरज की तरहां तपता है बड़ा बैरागी हो गया है आज कल ये मेरा मन!
जानें कहां भटक गया है। जानें किस पर अटक गया है...... मेरा मन .......
किस वादियों की तलाश करता है किसी मंजिल की आश में उलझ गया है मेरा मन
अंधेरा बढ़ गया है उजाले की तलब है जानें क्यों जल रहा है रोशनी की उम्मीद में खंडर होकर बिखर गया है....... मेरा मन .......
बहुत थक गई हूँ, अकेले चलते हुए कारवे बनें नहीं, गले लगाया जिसको
साथ वो रहें नहीं, जब तक ज़रूरत थी कुछ क़दम तक साथ मेरे वो चलते रहें मंजिल मिलती गई उन्हें, वो बिछड़ते रहें
बुनियाद रखी तो मज़बूत थीं, जानें कैसे हिल गई कुछ खंडर होकर बिखरे, कुछ टूट कर बिखर गए
खामोश पत्थर वे, बेरुखी पलकों पर सजाए यें कुछ सपने केवल स्मृति के चिन्ह बनकर रह गये हम जब गिरे मंजिल से फिसल कर जमीं पर लोग इल्ज़ाम देते रह गये
वक़्त की मार में ऐसे घीरे हम इमारत तो मजबूत थीं हमारी आज केवल खंडर रह गये।