जो पहले मसहूर थें, अब कहीं खो गये धूल के कुछ कण थें. धूल ही हों गये ।
ढह गई इमारतें, सिर्फ पद चिन्ह रह गये धूल के कुछ कण में धूल ही हो गये।
कधों से फिसल गये जैसे कोई पेड़ हवा की परतें खुली झकझोर मन हो गये।
अखरोट की तरहां सख्श दिखते हैं। मिट्टी हवा - पानी जैसे मन के भाव हों गये।
ख़ाली है रिक्त कोष हृदय के आज कल गांठ है कंठो में फरियाद कहां आज कल ।
अंधेरे की कोठरी में बंद हैं प्रकाश सारा लुका छिपी जैसे अंतर्मन के सार हों गये
चाय के प्याले जैसे सुबह शाम हो गये धूल के कुछ कण में धूल ही हों गये।
मन क्या है ? रेत की तरहा है। फिसल जाता है जैसे हाथों से रेत फिसलता हैं।
मन भी फिसलता है रुकता नहीं बड़ा मुश्किल है, इसको संभालना
नयी नयी इच्छाओं का दामन थाम लेता हैं बड़ा जिद्दी है बड़ा बहरूपिया है
बहुत समझाया हठी बहुत हैं मचल जाता है ज़रा सी चीज़ पर नियत डाल देता है।
कैसे समझाऊं इसे समझ नहीं आता बेशर्मी की तरहां नखरे करता है।
ये मन ही तो है हजारों ख्वाहिशें जगा हृदय में जानें कितने नृत्य कराता है।