वो बचपन था जब एक हाथ में पिता की अंगुली थी और दुसरे हाथ में थामी थी क़लम
पिता ने सहारा दिया था और क़लम ने बता दिया था रास्ता,
यहीं सोचकर हम आसमां छूने निकल गये।
धीरे धीरे ही सही मंजिल दिखने लगीं हम बढ़ने लगे सफ़र पर और राहें खुद ही खुद मिलने लगीं
सफ़र कुछ पुराना ज़रूर था मगर होंसले नये थें, पंख भी नये थें नयी थी दुनिया, सफ़र भी नया था नयी उमंग, नयी बहार, नये जज़्बात थें
नयी थी दुनिया मेरी, नये अभी ख्वाब थें क्योंकि पिता की अंगुली छोड़ हम अकेले उड़ने लगे बेरंग दुनिया में
रंग जज्बातों के भरने लगें चाह थी केवल आसमानछूने की अकेले अम्बर में उड़ने के ख्वाब बिना सोचे ही आने लगें हम सपने में भी अम्बर अम्बर कह कर चिल्लाने लगे।
मिट जायेगा अंधकार खुद के मन का दीप जला सूरज की लालिमा से कुछ रंग लेकर जीवन को सफल बना
उम्मीद के पंख लगाकर चल छूले आसमा
तूं दीन नहीं है फिर क्यों घबराएं जज्बातों का सागर हृदय में उमड़ रहा
लें विश्वास का दीपक जहाँ रोशन बना
तपती धूप में तप कर सोना बनेगा मुख में नाम श्री राम दोहरा ।