पेड़ को काटकर लकड़हारा खुद हैरान है… पहले था छांव में अब धूप से परेशान है…

शाख से पत्ते गिरे हो, मैं ऐसे भटकना नहीं चाहती हूँ… मैं अपनी भी जड़ें रखना चाहती हूँ… हाँ … मैं जमीन से ही सदा जुड़े रहना चाहती हूँ…

सभी फूलों का एक साथ खिल जाना… प्रकृति सिखाती है समझौते में सुकून पाना…

वो मौसम जैसे थी खूबसूरत सुहानी… दिल को सुकून देने वाली थी… पर मैं प्रकृति के बदलने से अनजान था…

इंतजार है एक तेरा… कश्ती पर सवार हो… समंदर की मस्ती भरी लहरों पर चलें… सुनो अब चलें उस नीले गगन के तले…

सुनो… बारिश की बूंदें चुपके से कह रही है… कितना भी ऊँचा उठ जाओ तुम… पर आना तो तुम्हें जमीन पर ही है…

प्रकृति ने क्या खुशरंग बिखेरे हैं आसमान पर… मानो हरीतिमा निखर आई हो जमीन  की  फलक  पर…

तुम बचाते हो दो पेड़ों को तो अपना भविष्य बचाओगे… वहम छोड़ झूठे जीवन का सच में कुछ कर जाओगे…

नहीं कैद रहना है मुझे इन चार दिवारों में… मुझे तो जीना है इस प्रकृति की हवाओं में…

चलो जंगल में पेड़ काटते हैं… जानवरों को आपस में बाँटतें हैं… कुछ तुम रखना कुछ हम घर ले जाते हैं… इनमें इन्सान और ज्यादा जंगली को छांटते हैं…

फिजाओं से आ रही है महक ये मिलन की… तपन धरती की मिटाने देखो एक बादल आया है…

नदी के किनारे अनगिनत सपने सजाये मैं… ऐ चांदनी रात आओ ना तुम पर प्यार लूटाऊँ मैं…

कुदरत साथ ना दे तो दुनिया साथ नहीं देती… मेरी अपनी ही परछाई धूप आने के बाद मिली…

नदी मर गई… पर्वत मर गए… मरे हवा, पेड़ और मिट्टी भी… हुआ परेशान फिर जो इंसान… गुम हो गई सांस और जिन्दगी भी…

प्रकृति की खामोशी में भी… मीठी चहचहाहट सुनाई पड़ती है… जो मेरे भीतर की गहराई तक जाकर… मुझे खामोश रहना सिखाती है… और धैर्य पर भरोसा रखना समझाती है…

प्रकृति से सीखिए जीने का सलीका… धूप बरसात में खिले रहने का तरीका…

प्रकृति भी सिखाती है जीवन जीने की कला… सुदृढ़ होकर भी वृक्ष देते हैं लताओं को पनाह…

भोर की सुनहरी किरणों संग… प्रकृति की सुन्दरता भव्य निराली है… देखो मिलकर पेड़ों से किस तरह… मस्ती में इठलाती डाली डाली है…

मातृत्व भरा व्यवहार और है करुणामयी जिसकी दृष्टि… ध्यान रखिए उस प्रकृति का खुशहाल रखिए अपनी सृष्टि…

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